osho in hindi
हम व्यक्तित्व की पहली पर्त पर जी रहे हैं–सेक्स की पर्त पर–जहां कि कंकड़- पत्थर से ज्यादा कुछ नहीं मिल सकता। अगर वहां से ऊर्जा इकट्ठी हो और थोड़ी आगे बढ़े, तो दूसरा चक्र खुलना शुरू होता है, जहां कि सुख के तल बदल जाते हैं। और ध्यान रहे, सेक्स के तल पर दूसरे का होना जरूरी है हमारे सुख के लिए। दूसरे चक्र पर दूसरे का होना जरूरी नहीं है, हम अकेले काफी हो जाते हैं। और व्यक्ति मुक्त होने लगता है। सातवें चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है–आपके मस्तिष्क तक जब ऊर्जा पहुंच जाती है, जब आपकी शक्ति इतनी भर जाती है कि सेक्स सेंटर और सहस्रार के बीच दोनों में शक्ति प्रवाहित होने लगती है, तो कोई उसे कुंडलिनी कहे, कोई उसे कोई और नाम दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–जिस दिन आपकी ऊर्जा इतनी इकट्ठी है कि आपके मस्तिष्क के चक्रों को भी चलाने लगती है, उस दिन आप पहली बार आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं, ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं। उस दिन आप जानते हैं, कि कहां पहुंच गया।
लेकिन हम पहले ही चक्र पर खो जाते हैं। जिंदगी को वह हमारा छिद्र सब कुछ विदा करवा देता है। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप सेक्स को दबायें, रोकें? अगर आपने दबाया और रोका तो आप कभी भी न रोक पायेंगे, क्योंकि शक्ति का एक नियम है कि दबाई गयी शक्ति विद्रोही हो जाती है। और जिस शक्ति को जितने जोर से दबाया जाता है, वह उतनी ही जोर से रिपेल करती है और रिएक्ट करती है। किसी शक्ति को भी दबाया नहीं जा सकता। शक्ति को सिर्फ मार्ग दिये जा सकते हैं। ये दो ढंग हैं। शक्ति को नया मार्ग दें तो शक्ति उससे प्रवाहित होने लगती है या शक्ति का पुराना मार्ग रोकें तो शक्ति उसी मार्ग पर जोर से चोट करने लगती है।
तो जो भी लोग सेक्स से लड़ेंगे वे जिंदगी भर के लिए कामुक रह जायेंगे। वे कभी भी काम से बाहर नहीं जा सकते। सेक्स से लड़कर कभी कोई व्यक्ति ऊपर के चक्रों तक नहीं पहुंचा है, जीवन की ऊंचाइयां नहीं छुई हैं। हां, जीवन के ऊपर के चक्रों को गतिमान करके कोई व्यक्ति जरूर सेक्स से मुक्त हो गया है।
ब्रह्मचर्य सेक्स से लड़ाई नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स से ऊंचे केंद्रों का सक्रिय हो जाना है। इसलिए नेगेटिव मत पकड़ लेना। जैसा कि हजारों साल से इस मुल्क में हम पकड़े हुए हैं। हजारों साल से यह हमारी समझ में आ गया था बहुत पहले, कि यह ऊर्जा अगर रुक जाये तो बड़े आनंद के द्वार खोल देती है। लेकिन यह ऊर्जा रुके कैसे? तो हम रोक लें इसे जबर्दस्ती से। जितना आप रोकेंगे उतनी यह ऊर्जा धक्का देगी और जिस जगह आप रोकेंगे, वहां ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। और जिस चक्र पर ध्यान होगा वह चक्र सक्रिय रहता है। इसलिए जो लोग ऊर्जा को रोकते हैं काम के बिंदु पर, यौन के बिंदु पर, वे यौन के प्रति अति सक्रिय हो जाते हैं। सच तो यह है कि उनका पूरा व्यक्तित्व जननेंद्रिय बन जाता है। वे उसके बाहर नहीं रह जाते। उनका सारा बोध वहीं अटक जाता है। उनकी चेतना वहीं उलझ जाती है। और वह उलझी हुई चेतना जितनी चोट करती है, उतना ही वह केंद्र सक्रिय होता है। और वह केंद्र जब सक्रिय जोर से होता है तो उनके पास एक ही उपाय बचता है, कि भोजन कम कर दें, व्यायाम कम कर दें और मुर्दे की तरह जीने लगें, ताकि ऊर्जा पैदा न हो।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे तो साधारण गृहस्थ अच्छा है। कम से कम ऊर्जा पैदा तो करता है। ऊर्जा पैदा हो तो किसी दिन ऊपर की यात्रा भी हो सकती है। संन्यासी इससे बुरी हालत में है। वह ऊर्जा पैदा ही नहीं करता। हालांकि उसकी ऊर्जा बाहर नहीं जाती, लेकिन उसके पास ऊर्जा होती भी नहीं कि ऊपर जा सके। ऊर्जा चाहिए ही। जो बाहर जाती है, वह भीतर भी जा सकती है। लेकिन जो बाहर जाने योग्य भी नहीं रही, वह भीतर जाने योग्य कभी नहीं रह जाती। जो बाहर की ही यात्रा करने में असमर्थ हो गया है, वह भीतर की यात्रा कभी न कर सकेगा।
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