Saturday, 25 July 2015

जीवन में सबसे कठिन बात है, स्वयं को स्वीकार कर लेना-ओशो

osho in hindi

जीवन में सबसे कठिन बात है, स्वयं को स्वीकार कर लेना। अहंकार को उससे बड़ी चोट और किसी बात से नहीं लगती। क्योंकि अहंकार है सदाकुछ औरकुछ औरज्यादा होने की महत्वाकांक्षा। जितना धन है तुम्हारे पास, अहंकार कहता है, और ज्यादा हो सकता है। इसे ज्यादा करो। तुम्हारी योग्यता ज्यादा है और धन कम है। यह तुम्हारे अनुकूल नहीं है, योग्य नहीं, कि इतने थोड़े से तुम तृप्त हो जाओ।
और ऐसा नहीं है कि धन बढ़ जायेगा तो तुम तृप्त हो जाओगे। कितना ही होगा धन, अहंकार बार-बार कहेगा, तुम्हारी योग्यता ज्यादा थी, अयोग्य तुमसे आगे खड़े हैं। जिन्हें भीख मांगनी चाहिए थी, वे सम्राट हो गये हैं। और तुम, जिन्हें सम्राट होना चाहिए था, केवल इतने पर अटके हो?
अहंकार ज्यादा और ज्यादाऔर ज्यादा होने का स्वप्न देता है। और अहंकार यह मानने को कभी राजी नहीं होता कि तुमने अपनी योग्यता के बराबर पा लिया। यह तो असंभव ही है कि अहंकार मानने को राजी हो कि मैंने अपनी योग्यता से ज्यादा पा लिया। तुम्हारी पात्रता अनंत मालूम होती है, और जो मिलता है वह बहुत क्षुद्र मालूम होता है। यही दौड़ हैअस्वीकार!
और धन के संबंध में नहीं, सभी संबंधों में, सभी दिशाओं में; चाहे ज्ञान हो, चाहे यश हो, चाहे पद हो। ये सब संसार की चीजें तो हमारी समझ में भी आ जाती हैं कि यहां दौड़ है, और दौड़ छोड़ने जैसी है। क्योंकि दौड़ से सिवाय अशांति के और क्या मिलेगा? और फिर न तृप्त होनेवाली दौड़ है। इसका कोई अंत नहीं है। तुम जहां भी रहोगे, इतने ही अतृप्त रहोगे, जितने तुम यहां हो।
पर मजा तो यह है कि यह दौड़ धर्म में भी प्रविष्ट हो जाती है। जब तुम ध्यान करना शुरू करते हो तब भी यही दौड़! इतने से ध्यान से क्या होगा? तुम्हारी योग्यता बड़ी है। और तुम्हारे जीवन में तो समाधि बरसनी चाहिए; और इतनी छोटी सी शांति मिल गई, इससे क्या होगा? कि मन थोड़ा प्रफुल्लित रहने लगा, इससे क्या होगा? तुम्हारे जीवन में तो आनंद का महासागर होना चाहिए। छोटी सी प्रकाश की किरण मिली, इससे क्या होगा? हजार-हजार सूर्य एक साथ उदित होने चाहिए। वही दौड़, जो पहले थी, अब भी है। पहले हम उसे सांसारिक कहते थे, अब धार्मिक कहते हैं। लेकिन उसका स्वभाव तो बदला नहीं।
क्या धार्मिक दौड़ भी हो सकती है? दौड़ने का नाम ही संसार है। तो धार्मिक दौड़ तो हो ही नहीं सकती। धर्म तो रुक जाने का, ठहर जाने का नाम है। रुकना, ठहरना, किसी आकांक्षा, किसी फल के लिए नहीं। रुकना, ठहरना, इस बात की समझ से है, कि जो मिला है वह काफी है। जो मिला है, न केवल काफी है, शायद जरूरत से ज्यादा है। जो मिला है वह मेरी पात्रता से ज्यादा है।
अहंकार इसे स्वीकार नहीं कर पाता, क्योंकि रुके तुमकि अहंकार मरा । तुम्हारी दौड़ में अहंकार का जीवन है; तुम्हारे रुकने में उसकी मृत्यु। इसलिए स्वयं को स्वीकार करना बड़ा ही कठिन है। स्वयं को स्वीकार करने का अर्थ हुआ कि दौड़ की कोई जगह न रही। तुम जैसे हो, हो! कुछ भी किया नहीं जा सकता। कुछ करने को भी नहीं है। तुम जैसे हो यह भी जरूरत से ज्यादा हो। इसके लिए भी तुम्हें कृतज्ञ, तुम्हें अनुगृहीत होना चाहिए। यह भी अस्तित्व की अनुकंपा है कि तुम हो।



1 comment:

  1. ������ koti koti parnam Osho ko ������

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