osho in hindi
तंत्र और योग दोनों मानते है कि संकीर्णता ही समस्या है। क्योंकि तुमने स्वयं को इतना संकीर्ण कर लिया है इसीलिए तुम सदा ही बंधन अनुभव करते हो। बंधन कही और से नहीं आ रहा है। बंधन तुम्हारे संकीर्ण मन से आ रहा है। और वह संकीर्ण से संकीर्णतर होता चला जाता है। और तुम सीमित होते चले जाते हो।
वह सीमित होना तुम्हें बंधन की अनुभूति देता है। तुम्हारे पास अनंत आत्मा है। और अंनत अस्तित्व है, पर वह अनंत आत्मा बंदी अनुभव करती है। तो तुम कुछ भी करो, तुम्हें सब और सीमाएं नजर आती है। तुम कहीं भी जाओ एक बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां से आगे नहीं जाया जा सकता। सब आरे एक सीमा-रेखा है। उड़ने के लिए कोई खुला आकाश नहीं है।
लेकिन यह सीमा तुमने खड़ी की है, यह सीमा तुम्हारा निर्माण है। तुमने कई कारणों से यह सीमा निर्मित की है: सुरक्षा के लिए, बचाव के लिए। तुमने एक सीमा बना ली है। और जितनी संकीर्ण सीमा होती है उतने सुरक्षित तुम महसूस करते हो। यदि तुम्हारी सीमा बहुत बड़ी हो तो तुम पूरी सीमा पर पहरा नहीं दे सकते हो, तुम सब और से सावधान नहीं हो सकते। बड़ी सीमा असुरक्षित हो जाती है। सीमा के संकीर्ण करो तो तुम उस पर पहरा दे सकते हो, बंद रह सकते हो। फिर तुम संवेदनशील न रहे, सुरक्षित हो गए। इस सुरक्षा के लिए ही तुमने सीमा खड़ी की है। लेकिन फिर तुम्हें बंधन लगता है।
मन ऐसा ही विरोधाभासी है। तुम सुरक्षा भी मांगते हो और साथ ही साथ स्वतंत्रता भी। दोनों एक साथ नहीं मिल सकती। यदि तुम्हें स्वतंत्रता चाहिए तो सुरक्षा खोनी पड़ेगी। कुछ भी हो, सुरक्षा बस भ्रम मात्र है। वास्तविक नहीं है। क्योंकि मृत्यु तो होगी ही। तुम चाहे कुछ भी करो, तुम मरोगे ही। तुम्हारी सारी सुरक्षा ऊपर-ऊपर है। कुछ भी मदद न देगा। लेकिन असुरक्षा से डरकर तुम सीमाएं खड़ी करते हो। अपने चारो और बड़ी-बड़ी दीवारें खींच लेते हो। और फिर खुला आकाश कहां है? और कहते हो, ‘मैं स्वतंत्रता चाहता हूं और मैं बढ़ना चाहता हूं।’ लेकिन तुमने ही ये सीमाएं खड़ी की है।
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