osho in hindi
कथा है कि श्वेतकेतु बहुत दिन तक गुरु के पास रहा। वह जीवन का रहस्य जानना चाहता था, लेकिन शायद अभी तैयारी न थी। वर्षों बीत गए। बहुत कुछ उसे कहा गया, बहुत कुछ बताया गया, लेकिन परम गोपनीय न कहा गया। वह धीरज से प्रतीक्षा करता रहा।
कथा बड़ी मधुर है। कथा कहती है कि गुरु के गृह में जो हवन की अग्नि जलती थी, उस तक को दया आने लगी। अग्नि को दया! गुरु न पसीजा। लेकिन शिष्य के धैर्य को देखकर, जिस अग्नि को वह रोज—रोज जलाता था, ईंधन डालता था, हवन में गुरु की सहायता करता था, वह जो यश की वेदी थी, उसकी अग्नि को जो सतत जलती रहती थी, अहर्निश जलती रहती थी, उसको भी देख—देखकर करुणा आने लगी। बहुत हो गया। प्रतीक्षा की भी एक सीमा है।
गुरु बाहर गया था, तो कहते हैं, अग्नि ने श्वेतकेतु को कहा कि गुरु कठोर है, और अब तू राजी हो गया है, तैयार हो गया है, फिर भी नहीं कह रहा है, तो मैं ही तुझे कहे देती हूं।
कहते हैं, श्वेतकेतु ने कहा, धन्यवाद तुझे तेरी कृपा कै लिए, तेरी करुणा के लिए। लेकिन प्रतीक्षा तो मुझे मेरे गुरु— के लिए ही करनी होगी। उनसे ही लूंगा। तुझे दया आ गई, क्योंकि तुझे और बातों का पता न होगा जिनका गुरु को पता है। जरूर मेरी तैयारी में कहीं कोई कमी होगी, अन्यथा कोई कारण नहीं है। गुरु कठोर नहीं है। मेरी पात्रता अभी सम्हली नहीं। अभी मेरा पात्र कंपता होगा, अमृत को उंडेलने जैसा न होगा। उस कंपते पात्र से अमृत छलक जाए! या मेरे पात्र में छिद्र होंगे, कि अमृत उस पात्र से बह जाए! कि मेरा पात्र उलटा रखा होगा, कि गुरु उंडेले और मुझ में पहुंच ही न पाए! जरूर कहीं मुझ में ही भूल होगी। धन्यवाद, तेरे प्रेम और तेरी करुणा को! लेकिन प्रतीक्षा मुझे गुरु के लिए ही करनी होगी।
वर्षों प्रतीक्षा करता शिष्य। उस प्रतीक्षा में ही निकट आता।
धैर्य से ज्यादा निकट लाने वाला कोई तथ्य दुनिया में नहीं है। और जहां—जहां अधैर्य हो जाता है, वहीं—वहीं निकटता खो जाती है। जहां—जहां तुम जल्दी में होते हो, वहां तुम निकट नहीं हो पाते। निकटता समय मांगती है, अनंत समय मांगती है।
और जीवन के जितने गुह्य तत्व हैं, उनको जानने के लिए तो बहुत समय मांगती है। अगर प्रेम को जानना है, तो वर्षों लगेंगे, और’ अगर श्रद्धा को जानना है, तो जन्मों। अगर प्रार्थना सीखनी है, तो धैर्य की धातु ही में ही तो प्रार्थना ढलती है, धैर्य के ही पत्थर पर तो प्रतिमा बनती है प्रार्थना की।
अगर धैर्य से ही बच गए तो प्रार्थना कभी न बनेगी। तब ऐसा ही होगा कि ऊपर—ऊपर से तुम चिपका लोगे प्रार्थना को, लेकिन उसकी जड़ें तुम्हारे हृदय में न होंगी। तुम्हारे जीवन से उस प्रार्थना का कोई संबंध न होगा। जा सकते हो तुम मंदिरों में, मस्जिदों में, प्रार्थनागृहों में। पूजा कर सकते हो, अर्चना कर सकते हो। सब ऊपर—ऊपर होगा। तुम्हारा भीतर अछूता रह जाएगा। और असली बात भीतर है। बाहर प्रार्थना उठे न उठे, बड़ी बात नहीं, भीतर हो जाए।
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