Friday, 17 July 2015

गुरु का अर्थ है-ओशो

osho in hindi

                           

गुरु का अर्थ हैजिसके भीतर परमात्मा सर्वाधिक सजगता से जी रहा हैऔर तो कोई अर्थ नहीं है। चट्टान के भीतर ही परमात्मा है लेकिन  बिलकुल सोया हुआ। तुम्हारे भीतर भी परमात्मा है लेकिन शराब पीया हुआ। चोर के भीतर भी परमात्मा हैलेकिन चोर। हत्यारे के भीतर भी परमात्मा हैलेकिन हत्यारा। गुरु का क्या मतलब हैगुरु का इतना ही मतलब हैजिसके भीतर परमात्मा अपने शुद्धतम रूप में प्रकट है। जिसमें अग्नि शुद्धतम रूप में जल रही हैजिसमंर धुआं बिलकुल नहीं है। निर्धूम अग्नि-गुरु का अर्थ है।अगर तुम्हें वहां नहीं दिखाईपड़ती अग्नि, तो तुम्हें कहां दिखाई पड़ेगी? जहां धुआं ही धुआं है, वहां दिखाई पड़ेगी? जब निर्धूम अग्नि नहींदिखाई पड़ती, तो जहां धुआं ही धुआं है,वहां तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगी? वहां तो धुएं के कारण तुम्हारी आंखें बिलकुल बंद हो जाएंगी।गुरु के पास तुम्हारी आंख नहीं खुलती तो तुम्हारी आंख पत्थरों के पास कैसे खुलेगी? गुरु तो केवल प्रतीक है।अर्थ है, जिसने जान लिया। अगर तुम उसके पास झुको, तो तुम भी उसकी आंखोंसे देख सकते हो। और तुम भी उसके हृदय से धड़क सकते हो। और तुम भी उसके हाथों से परमात्मा को छू सकते हो।एक बार तुम्हारी पहचान करवा देगा वह, फिर तो बीच से हट जाता है। फिर बीच में कोई जरूरत नहीं है। पर एक बार तुम्हारी पहचान करवा देना जरूरी है। गुरु का इतना ही मतलब है, कि परमात्मा तुम्हें अपरिचित है, उसे परिचित है। तुम भी उसे परिचित हो, परमात्मा भी उसे परिचित है। वह बीच की कड़ी बन सकता है। वह तुम्हारी लाकात करवा दे सकता है। वह थोड़ा परिचय बनवा दे सकता है। वह तुम दोनों को पास ला दे सकता है। एक दफा पहचान हो गई, फिर वह हट जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं है फिर।लेकिन यह मत सोचो, कि तुम समर्पण अस्तित्व के प्रति कर सकते हो। कर सको, तो बहुत अच्छा। वही तो है सारी शिक्षा सभी गुरुओं की, कि तुम समर्पित हो जाओ अस्तित्व के प्रति। लेकिन धोखा मत देना अपने को। कहीं यह न हो, कि गुरु से बचने के लिए तुम कहो, हम तो अस्तित्व के प्रति समर्पित हैं।अस्तित्व क्या है? वृक्ष के सामने झुकोगे? पत्थर के सामने झुकोगे? कहां झुकोगे? झुकने की कला अगर तुम्हें आ जाए, तो गुरु तो केवल एक प्रशिक्षण है। वह तुम्हें झुकना सिखा देगा। तिब्बत में जब शिष्य दीक्षित होता है, तो दिन में जितनी बार गुरु मिल जाए उतनी बार उससे साष्टांग दंडवत करना पड़ता है। कभी-कभी हजार बार क्योंकि जितनी बार गुरु आश्रम में शिष्य रहता है; गुरु गुजरा, फिर शिष्य मिल गया। पानी लेने जा रहे थे, बीच में गुरु मिल गया; भोजन करने गए, गुरु मिल गया। जब मिल जाए तभी साष्टांग दंडवत। पूरे जमीन पर लेट कर पहला काम साष्टांग दंडवत।एक युवक एक तिब्बती मानेस्ट्री में रह कर मेरे पास आया। मैंने उससे पूछा, तूने वहां क्या सीखा? क्योंकि वह जर्मन था और दो साल वहां रह कर आया था। उसने कहा, कि पहले तो मैं बहुत हैरान था, कि यह क्या पागलपन है! लेकिन मैंने सोचा, कुछ देर करके देख लें।फिर तो इतना मजा आने लगा। गुरु की आज्ञा थी, कि जहां भी वह मिले उसको झुकूं, फिर धीरे-धीरे जो भी आश्रम में थे, जो भी मिल जाते! साष्टांग दंडवत में इतना मजा आने लगा, कि फिर मैंने फिक्र ही छोड़ दी कि क्या गुरु के लिए झुकना! जो भी मौजूद है।फिर तो मजा इतना बढ़ गया, कि लेट जाना पृथ्वी पर सब छोड़ कर। ऐसी शांति उतरने लगी, कि कोई भी न होता तो भी मैं लेट जाता। साष्टांग दंडवत करने लगा वृक्षों को, पहाड़ों को। झुकने का रस लग गया।तब गुरु ने एक दिन बुला कर मुझे कहा, वह युवक मुझसे बोला, अब तुझे मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं। अब तो तुझे झुकने में ही रस आने लगा। हम तो बहाना थे, कि तुझे झुकने में रस आ जाए। अब तो तू किसी के भी सामने झुकने लगा है। और अब तो ऐसी भी खबर मिली है, कि तू कभी-कभी कोई भी नहीं होता और तू साष्टांग दंडवत करता है।कोई है ही नहीं और तू दंडवत कर रहा है।उस युवक ने मुझे कहा, कि बस, झुकने में ऐसा मजा आने लगा।

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