Wednesday, 22 July 2015

तुम क्या सोचते हो, तुम पहली बार मनुष्य हुए हो-ओशो

osho in hindi

तुम क्या सोचते हो, तुम पहली बार मनुष्य हुए हो? इस अनंत काल में तुम अनेक बार मनुष्य हुए होगे। इतना लंबा समय बीता है कि तुम बहुत बार इस घड़ी पर आ गए होगे और बहुत बार तुमने यह घड़ी गंवा दी है। और गंवा कर पछताए भी होगे, मरते वक्त रोए भी होगे। खून टपका होगा तुम्हारी आखों से आंसू बनकर। और तुमने निर्णय किया होगा: अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। अगर फिर अवसर मिल जाए तो अब दुबारा ऐसी भूल न होगी। लेकिन जब तक दुबारा अवसर मिलेगा तब तक इतना समय बीत जाता है कि तुम फिर भूल जाते हो।
उपनिषदों में ययाति की कथा है, मुझे बहुत प्रिय है। प्यारी कथा है। कथा ही है, ऐतिहासिक नहीं हो सकती। लेकिन बड़ी मनोवैज्ञानिक है। और पुराण इतिहास हैं भी नहीं। पुराण मनोविज्ञान हैं। मनोविज्ञान की गहराई इतिहास से बहुत ज्यादा है। इतिहास तो कूड़ाकरकट बटोरता है। इसलिए इतिहास में तुम्हें औरंगजेबों और अकबरों और शाहजहां और जहांगीरों की कहानियां मिलती हैं। तैमूरलंग और नादिरशाह, इनकी कहानियांकूड़ाकरकट! इतिहास में बुद्धों का पता नहीं चलता। इतिहास पर बुद्धों की लकीर बनती नहीं।
क्योंकि जब तक कोई उपद्रव न करें तब तक इतिहास पर उसकी लकीर नहीं बनती। तुम हत्या करो तो अखबार में नाम आता है। तुम चोरी करो तो अखबार में नाम आता है। तुम किसी की छाती में छुरा भोंक दो तो तस्वीर छपती हैं। तुम किसी गिरते आदमी को सड़क पर संभाल लो, कोई खबर नहीं आती। और तुम अपने घर में बैठ कर ध्यान करो, तब तो खबर आएगी ही कैसे। और तुम प्रभु को स्मरण करो तो किसको पता चलेगा? कौन जान पाएगा?
इतिहास अखबारों की कतरन है। पुराने अखबार इतिहास बन जाते हैं। पुराण इतिहास नहीं है। पुराण मनोविज्ञान है। ऐसा हुआ है, ऐसा नहीं—— ऐसा होता है सदा। ऐसी ययाति की कथा है। ययाति मरने के करीब आया। बड़ा सम्राट था। उसके सौ बेटे थे। अनेक रानियां थीं। सौ वर्ष जिया। पूरी उम्र लेकर मर रहा था। लेकिन जब मौत ने दरवाजे पर दस्तक दी और मौत ने कहा : ययाति, तैयार हो जाओ। भले दिनों की कहानी है। अब तो मौत दस्तक भी नहीं देती। तैयारी का अवसर भी नहीं देती। मौत ने कहा : ययाति तैयार हो जाओ, मैं आ गयी। ययाति चौंका। तुम भी चौंको, अगर मौत आकर एक दिन दरवाजे पर दस्तक दे। इसलिए मैं कहता हूं, यह मनोवैज्ञानिक है।
ययाति चौंका। ययाति ने हाथ जोड़कर कहा कि क्षमा करो, मैं तो जीवन गवाता रहा। सौ वर्ष ऐसे ही बीत गए, पता न चला। मैंने तो व्यर्थ में गंवा दिए दिन। नहींनहीं, मुझे ले मत जाओ। एक अवसर मुझे और दो। यह भूल दुबारा न होगी। करने योग्य कुछ कर लूं। किस मुंह से परमात्मा के सामने खड़ा होऊंगा? क्या जवाब दूंगा?
पुरानी कहानी है, मौत को दया आ गयी। मौत ने कहा : ठीक है। लेकिन किसी को मुझे ले जाना ही होगा। तुम्हारा कोई बेटा जाने को राजी हो?
सौ बेटे थे। ययाति ने अपने बेटों की तरफ देखा। ययाति सौ साल का था, उसका कोई बेटा अस्सी साल का था, कोई सत्तर साल का था। वे भी बूढे होने के करीब थे, लेकिन अस्सी साल का बेटा भी नीची नजर कर लिया। सबसे छोटा बेटा उठकर खड़ा हो गया। वह अभी जवान ही था, अभी सत्रहअठारह का होगा। उसने मौत से कहा : मुझे ले चलो। मौत को उस पर और दया आई। मौत ने कहा कि तेरे और बड़े भाई हैं, वे कोई राजी नहीं होते, तू क्यों जाता है? अपने बड़े भाइयों से क्यों नहीं पूछता, तुम राजी क्यों नहीं होते?
उसने पूछा, अपने बड़े भाइयों से कहा : आप जाने को राजी क्यों नहीं हैं? पिता के लिए जीवन नहीं दे सकते?
बड़े भाइयों ने कहा कि जब पिता सौ साल का होकर जाने को राजी नहीं है, तो हम अभी केवल अस्सी साल के हैं कि सत्तर साल के हैं। अभी तो हमें जीने को और दिन पड़े हैं। और जिस तरह पिता नहीं कर पाया जो करना था, हम भी कहां कर पाए हैं! पिता को तो सौ वर्ष मिले थे, नहीं कर पाया; हमें तो अभी अस्सी वर्ष ही हुए हैं, अभी बीस वर्ष और कायम हैं। अभी हम कुछ कर लेंगे।
फिर भी जवान बेटा तैयार था। उसने कहा : मुझे ले चलो। मौत ने पूछा कि तू मुझे पागल मालूम होता है। तू तो अभी जवान है, अभी तूने कुछ भी नहीं देखा।
उसने कहा : जब सौ वर्ष में मेरे पिता कुछ न देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? अस्सी वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, सत्तर वर्ष में मेरे भाई नहीं देख पाए, तो मैं भी क्या देख पाऊंगा? मेरे निन्यानवे भाई कुछ नहीं देख पाए, मेरे पिता कुछ नहीं देख पाए। पिता सौ वर्ष में भी मांग कर रहे हैं कि जीवन और चाहिए। इतना ही पर्याप्त है मुझे दिखाने को कि यहां दिन सोएसोए बीत जाते हैं। तुम मुझे ले ही चलो। मेरा जीवन इतने भी काम आ जाए, मेरे पिता के काम आ जाए, तो भी सार्थक उपयोग हुआ। मैं निरर्थक नहीं गंवाना चाहता। यह कमसेकम कुछ सार्थक उपयोग है कि मैं पिता के काम आ गया। इतनी तो सांत्वना रहेगी, संतोष रहेगा।
सौ वर्ष बीत गए, फिर मौत आयी और वही की वही बात थी। ययाति फिर रोने लगा। उसने कहा कि क्षमा करो, मैं तो सोचा कि अब सौ वर्ष पड़े हैं, अभी क्या जल्दी है? जी लेंगे। फिर मैं पुराने ही धंधों में लग गया। अभी तो सौ वर्ष थे, बहुत लंबा समय था, वे भी गुजर गए। कब गुजर गए, पता न चला। कैसे गुजर गए, पता न चला। मुझे क्षमा करो। एक अवसर और।
और कहते हैं, कहानी बारबार अवसर देती है। ऐसा एक हजार साल ययाति जिया और जब हजारवें साल में मरा, तब भी रोता हुआ ही मरा।
तुम भी मरते क्षण में जब मौत तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ी हो जाएगी, रोओगे कि मैं कुछ कर न पाया; राम का स्मरण न कर पाया; कोई पुण्य का अनुभव न कर पाया; कोई ध्यान का झरोखा न खोल पाया; समाधि की मुझे गंध न मिली। मैंने जाना ही नहीं कि मैं कौन था। मैंने जाना ही नहीं कि अस्तित्व क्या था। मेरा कोई तारतम्य न बैठा। अस्तित्व से मेरा कोई मेल न हुआ। मेरा कोई मिलन न हुआ परमात्मा से। मुझे छोड़ो।
मगर जितनी आसानी से ययाति की कहानी में मौत छोड़ देती है, वैसा नहीं होता। वह तो कहानी है, प्रतीक है। मौत तो ले जाएगी। और दुबारा अवसर कब मिलेगा? ययाति तो भूल जाता था हर अवसर के बाद; दुबारा अवसर तुम्हें मिलेगा, इस बीच न मालूम कितने कल्प बीत गए होंगे, न मालूम कितना समय बह गया होगा, न मालूम गंगा का कितना पानी बह जाएगा! गंगा बचेगी कि नहीं दुबारा जब तुम आओगे! तब तक स्वभावत: तुम फिर भूल गए होओगे।
तुम्हें एक जन्म की स्मृति दूसरे जन्म में नहीं रह जाती। तुम फिर अ ब स से शुरू कर देते हो। शायद इस बार जैसा गंवा रहे हो वैसा पहले भी गंवाया, आगे भी गवाओगे।

जागना हो तो अभी जागो, कल पर मत टालो। टालने में ही आदमी भूला है, भटका है। स्थगित किया कि तुमने टाला, टाला कि तुम चूके। कल का कोई भरोसा है? कल कभी आया है? कल कभी आता है? कल उसका नाम है जो कभी नहीं आता।

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