osho in hindi
धर्म तो सदा ही नगद होता है। उधार और धर्म, संभव नहीं। उधार धर्म का नाम ही अधर्म है। और उधार धर्म बहुत प्रचलित है पृथ्वी पर। मंदिर—मस्जिदों में जिसे तुम पाते हो, वह उधार धर्म है।
उधार से अर्थ है : अनुभव तुम्हारा नहीं है, किसी और का है। किसी राम को हुआ अनुभव या किसी कृष्ण को या किसी क्राइस्ट को, तुमने सिर्फ मान लिया है। तुमने जानने का श्रम नहीं उठाया। मानना बड़ा सस्ता है, जानना महंगी बात है। जानने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। और जब कीमत चुकाते हो तभी धर्म नगद होता है। और कीमत भारी है —प्राणों से चुकानी होती है।
उधार धर्म बिल्कुल सस्ता है। गीता पढ़ो, मिल जाता है। बाइबिल पढ़ो, मिल जाता है। उधार धर्म तो चारों तरफ देनेवाले लोग मौजूद हैं। मां—बाप से मिल जाता है, पंडित— पुरोहित से मिल जाता है। नकद धर्म दूसरे से नहीं मिलता। नगद धर्म को स्वयं के भीतर ही कुआं खोदना पड़ता है, गहरी खुदाई करनी पड़ती है। लंबी यात्रा है अंतर्यात्रा, क्योंकि बहुत दूर हम निकल आए हैं अपने से। जन्मों— जन्मों हम अपने से दूर जाते रहे हैं। अब अपने पास आना इतना आसान नहीं। और हमने हजार बाधाएं बीच में खड़ी कर दी हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम अपने को कहां छोड़ आए। कुछ पता— ठिकाना भी नहीं है, कि कहां जाएंगे तो अपने से मिलन होगा। कभी अपने से मिलन रहा भी है, इसकी भी कोई याद्दाश्त नहीं बची है। विस्मृति के पहाड़ खड़े हो गए हैं।
नगद धर्म का अर्थ होता है: इन सारे पहाड़ों को पार करना होगा। और ये पहाड़ बाहर होते तो हम पार आसानी से कर लेते। ये पहाड़ भीतर हैं— विचारों के, भावनाओं के, पक्षपातों के, धारणाओं के। और यह खुदाई बाहर करनी होती तो बहुत कठिन नहीं थी; उठा लेते कुदाली और खोद देते। यह खुदाई भीतर करनी है। ध्यान की कुदाली से ही हो सकती है। और ध्यान की कुदाली बाजार में नहीं मिलती; स्वयं निर्मित करनी होती है; इंच — इंच श्रम से बनानी होती है।
धर्म तो सदा ही नगद होता है— अर्थ, कि धर्म सदा ही स्वानुभव से होता है, आत्म— अनुभूति से होता है। तो जो उधार हो, उसे अधर्म मान लेना।
मैं नास्तिक को अधार्मिक नहीं कहता, खयाल रखना। नास्तिक धर्म— शून्य है, अधार्मिक नहीं है। धर्म का अभाव है। अधार्मिक तो मैं कहता हूं हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, जैन को, सिक्ख को, जिसने दूसरे को मानकर अपनी खोज ही बंद कर दी है; जो कहता है : ”हम क्यों खोज करें? बाबा नानक खोज कर गए। हम क्यों खोज करें? कबीरदास खोज कर गए। ”
और ऐसा नहीं है कि नानक ने और कबीर ने, दादू ने और रैदास ने सत्य नहीं पाया था— पाया था, लेकिन अपने भीतर खोदा था तो पाया था। तुम अगर सच में ही नानक को प्रेम करते हो तो उसी तरह अपने भीतर खोदो जैसा उन्होंने खोदा। तुम अगर सच में ही कृष्ण के अनुगामी हो तो कृष्ण के पीछे मत चलो। यह बात तुम्हें बेबूझ लगेगी, क्योंकि अनुगमन का अर्थ होता है पीछे चलना। मेरी भाषा में अनुगमन का अर्थ होता है: वैसे चलो जैसे कृष्ण चले। कृष्ण के पीछे मत चलना, क्योंकि कृष्ण किसी के पीछे नहीं चले। कृष्ण के पीछे चले तो तुम कृष्ण का अनुगमन नहीं कर रहे हो। कृष्ण किसी के पीछे नहीं चले। कृष्ण अपने भीतर चले। तुम भी कृष्ण की भांति ही अपने भीतर चलो।
अगर लोग समझ लें सदगुरूओं को, तो सदगुरूओं का पीछा नहीं करेंगे। उनको समझते ही, उनका इशारा खयाल में आते ही, अपने भीतर डुबकी मार जाएंगे। वहीं पाया जाता है हीरा धर्म का। नहीं तो तुम कूड़ा—करकट बटोर रहे हो। कितने ही याद कर लो वेद और कितने ही कंठस्थ कर लो उपनिषद, तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा, खाली के खाली रहोगे।
उधार धर्म का अर्थ होता है: पांडित्य। नगद धर्म का अर्थ होता है: अनुभव।
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