osho in hindi
भगवान दो नावों में पांव नदिया कैसे होगी पार?
चितरंजन! न तो कोई नदी है, न कोई नाव है, न पार होना है, न कोई पार होने वाला है। सारे भेद बुद्धि खड़े कर लेती है और फिर भेदों में उलझ जाती है। न कहीं जाना है, न कोई जाने वाला है; सब यहां है, अभी है। तुम्हें जहां पहुंचना है, तुम वहीं हो। यही किनारा दूसरा किनारा है। डूबने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि तुम शाश्वत हो।
भटकने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। भटकोगे तो भी उसमें ही रहोगे। दूर भी जाओगे, तो रत्ती— भर, इंच— भर दूर नहीं जा सकते। दूर जाओगे कहां? ज्यादा से ज्यादा सो सकते हो या जाग सकते हो; बस इतना ही भेद है। पहुंच गये और न पहुंचे हुओं में इससे ज्यादा भेद नहीं है—एक जाग गया, एक सोता; दोनों एक ही मंदिर में हैं। जागा हुआ भी वहीं है, सोने वाले के पास ही बैठा है।
यह पहुंचने की धारणा अहंकार की ही धारणा है—मैं पहुंचूं! और जहां, ‘मैं’ खड़ा हुआ, वहां डर पैदा होता है कि कहीं राह में भटक तो न जाऊंगा। फिर हजार दुविधाएं खड़ी होती हैं। फिर डर लगता है कि दो—दो नावों पर सवार हूं। खास कर मेरे संन्यासी को तो डर लगेगा ही। पुराना संन्यास तो एकंगा था। संसारी संसारी होता था और संन्यासी संन्यासी होता था। साफ—सुथरा था मामला।
मेरा संन्यास इतना एकंगा नहीं है। मेरे संन्यास में जीवन के सारे रंग सम्मिलित हैं, जीवन की सारी विविधता सम्मिलित है। इसमें संसार भी है और संन्यास भी है।
No comments:
Post a Comment